नया साल और एक नया दशक 1 जनवरी 2020 से शुरू हो रहा है जिसके लेकर अलग-अलग भविष्यवाणियां जारी हैं.
लेकिन भविष्य में इसको लेकर क्या सुर्ख़ियां बन रही होंगी?
यहां हमने उन लोगों और कार्यक्रमों की सूची बनाई है जो आने वाले साल में चर्चा बटोरेंगे.
अमरीकी राष्ट्रपति की दौड़ को लेकर अभी से अंदाज़ा लगाना जल्दबाज़ी होगी.
व्हाइट हाउस में अभी रिपब्लिकन के डोनल्ड ट्रंप सत्ता में है. उनके ख़िलाफ़ अभी महाभियोग की प्रक्रिया जारी है. वहीं, डेमोक्रेटिक पार्टी ने अभी भी उम्मीदवार नहीं चुना है.
लेकिन यह तय है कि सीनेट की रेस महत्वपूर्ण होगी क्योंकि अमरीका में 3 नवंबर से इसकी चुनावी प्रक्रिया शुरू होगी.
ऊपरी सदन में नियंत्रण राष्ट्रपति के लिए चीज़ें आसाना या कठिन बना देता है. सीनेट ही विधायी एजेंडों, बजट और क़ानूनी फ़ैसलों पर अंतिम मुहर लगाता है.
वर्तमान में रिपब्लिकन्स का 100 सीटों में से 53 पर क़ब्ज़ा है लेकिन ट्रंप की पार्टी चुनावों में 23 सीटों पर क़ब्ज़ा कर चुकी है जबकि डेमोक्रेट्स के पास 12 सीटें हैं. निचले सदन हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव में इस समय डेमोक्रेट्स का बहुमत है.
ट्रंप फिर से चुनाव जीत सकते हैं लेकिन सीनेट में पासा पलटा तो यह उनके लिए मुश्किल होगा.
2019 के आधे बचे साल में इराक़, मिस्र और लेबनान में विरोध प्रदर्शन हुए जबकि शुरुआती आधे साल में अल्जीरिया और सूडान में प्रदर्शन हुए थे. इसके बाद विश्लेषकर्ताओं ने इसे नई 'अरब क्रांति' कहा था.
इसको 2011 से जोड़कर देखा गया था जब अरब देशों में विरोध प्रदर्शन चल रहे थे.
कार्नेज मध्य पूर्व केंद्र में शोधकर्ता दालिया ग़ानम कहती हैं, "2019 में अल्जीरिया, सूडान, इराक़ और लेबनान जैसे चार देशों ने विरोध प्रदर्शन देखे 2011 की 'अरब स्प्रिंग' से ये देश बाहर थे."
लेकिन क्या 2020 में ये प्रदर्शन और गति पकड़ेंगे? इस पर पेरिस की पीएसएल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और अरब मामलों के जानकार इशाक दीवान कहते हैं, "लोगों की असहमति की ये लहर दूसरे देशों तक भी फैल सकती है."
वो कहते हैं, "2011 में प्रदर्शनों की लहर आर्थिक स्थिति के कारण पैदा हुई थी. तब आर्थिक गति धीमी थी, लोगों का क़र्ज़ बढ़ गया था और बेरोज़गारी दर बहुत ऊंची थी."
"2011 के विरोध प्रदर्शनों के दौरान लोगों में एक तड़प थी और आज हो रहे प्रदर्शनों में एक भूख है."
हमारे सौर मंडल के बाहर किसी दूसरे ग्रह का अस्तित्व होना कोई नई बात नहीं है. 1990 के बाद से अब तक 4,000 ग्रह खोज चुकी है.
18 दिसंबर को प्रक्षेपित किए गए कीओप्स स्पेस टेलीस्कोप के ज़रिए इस दिशा में नए द्वार खुलने जा रहे हैं. यूरोपीयन स्पेस एजेंसी का यह अंतिरक्षयान अगले तीन सालों में 400-500 नए जटिल ग्रहों की खोज करेगा.
यह अंतरिक्षयान अगली पीढ़ी के खोजकर्ताओं के लिए अन्य ग्रहों को लेकर अधिक जानकारियां देगा. 2021 में नासा का जेम्स वेब टेलीस्कोप प्रक्षेपित किया जाना है जिसको लेकर भी यह जानकारियां देगा.
हॉन्गकॉन्ग में कई महीनों तक चल विरोध प्रदर्शनों के बाद उसके नेता आने वाले साल में एक नई उभरती हुई चुनौती देख सकते हैं.
'पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना' यानी चीन और 'रिपब्लिक ऑफ़ चाइना' यानी ताइवान एक-दूसरे की संप्रभुता को मान्यता नहीं देते. दोनों ख़ुद को आधिकारिक चीन मानते हुए मेनलैंड चाइना और ताइवान द्वीप का आधिकारिक प्रतिनिधि होने का दावा करते रहे हैं.
बीजिंग के लिए यह एक बुरी ख़बर हो सकती है क्योंकि चुनावी सर्वे में कहा जा रहा है कि साई इंग-वेन दोबारा राष्ट्रपित चुनी जा सकती हैं.
साई की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी एक मज़बूत राष्ट्रवादी पार्टी है और स्वतंत्रता समर्थक रुख़ रखने के कारण हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों को उसने हवा दी है.
17 दिसंबर को आए सर्वे में साई अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी हान कुओ-यू (बीजिंग समर्थित उम्मीदवार) पर 38 पॉइंट की बढ़त बनाए हुए हैं.
30 मई 2019 को अफ़्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र (एएफ़सीएफ़टीए) अस्तित्व में आ गया है. देशों की संख्या (54) के आधार पर यह दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र है.
इसको 'राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक क्षेत्र के मील के पत्थर' के रूप में परिभाषित किया गया है जो इस प्रायद्वीप की वृद्धि में सहायक होगा.
मुक्त व्यापार जुलाई से शुरू हो रहा है और उम्मीद है कि इससे अफ़्रीकी देशों में व्यापार को प्रोत्साहन मिलेगा. साल 2018 में अफ़्रीकी देशों के बीच व्यापार 20 फ़ीसदी से कम रहा था.
अमरीकी तैराक मार्जोरी गैस्ट्रिंग 13 वर्ष की थीं जब उन्होंने 1936 में बर्लिन गेम्स में स्वर्ण पदक जीता था और वो सबसे युवा ओलंपिक चैंपियन बनी थीं.
हालांकि, ये भी माना जाता है कि 7-10 वर्ष की आयु के एक फ़्रेंच लड़के ने डच नौकायान टीम को 1900 में पेरिस ओलंपिक में शीर्ष पुरस्कार दिलाया था.
लेकिन स्काई ब्राउन इससे भी आगे जा रही हैं. 11 वर्षीय ब्रिटिश स्केटबॉर्डर ने सितंबर में विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता था. अगर वो ओलंपिक के लिए क्वॉलिफ़ाई करती हैं तो ब्रिटेन की सबसे युवा ओलंपिक खिलाड़ी होंगी.
ओलंपिक खेल 24 जुलाई से 9 अगस्त तक टोक्यो में होने हैं. ओलंपिक में स्केटबोर्डिंग के अलावा, वॉल-क्लाइंबिंग, सर्फिंग, कराटे और सॉफ़्टबॉल को पहली बार शामिल किया जा रहा है.
Friday, December 27, 2019
Monday, December 9, 2019
दिल्ली की आग में मरने वाले बिहार से आए ये मज़दूर 'कौन थे'
मोहम्मद बबलू, मोहम्मद अफ़साद और मोहम्मद मुशर्रफ़.
ये वो नाम हैं जो शनिवार की शाम तक ज़िंदा थे. आँखों में अपने अपने संघर्ष, सपने और संकटों को लिए जी रहे थे.
ये बिहार में अपने गाँवों से हज़ार किलोमीटर का सफ़र तय करके दिल्ली के एक कारखानों में हर रोज़ 12 से 15 घंटों तक काम कर रहे थे.
ये जहां काम करते थे, वहीं जगह बनाकर सो जाते थे. जितना कमाते थे, उसमें से अधिकतम हिस्सा अपने गाँव भेज देते थे ताकि ये अपने माई-बाबा और बच्चों को दो वक़्त की रोटी दे सकें.
लेकिन रविवार सुबह दिल्ली की अनाज़ मंडी में लगी आग में इन चार युवाओं समेत 40 से ज़्यादा मजदूरों की मौत हो गई.
और ये नाम सरकारी फाइलों में क़ैद हो गए. मरने वालों में बच्चे भी शामिल हैं.
कई ऐसे परिवार हैं, जिनमें अब कमाने वाला कोई नहीं बचा है.
कई परिवार ऐसे हैं, जिनके गाँव घर से छह सात लड़कों की मौत हुई है.
लेकिन मोतिहारी, सहरसा, सीतामढ़ी से आने वाले लोग कौन थे और ये किन हालातों में दिल्ली आए थे.
'पैसे कमाकर, भाई की शादी करानी है'
ये कहानी 20 साल के मोहम्मद बबलू की है, जो बिहार के मुजफ़्फ़रपुर से काम करने के लिए दिल्ली आए थे.
बबलू के भाई मोहम्मद हैदर का अपने भाई के ग़म में रो-रोकर बुरा हाल है.
हैदर बताते हैं, "मेरा भाई मुझसे बहुत प्यार करता था. बहुत अच्छा था. काम पर आने से पहले हमसे बोला था कि 'भाई हम दोनों भाई मिलकर काम करेंगे और घर पर पुताई करवाएंगे. फिर शादी करवाएंगे.' ये कैसा रंग हुआ कि मेरी ज़िंदगी की रंग ही उजड़ गया."
बबलू उस परिवार से आते थे जिनके भाई मोहम्मद हैदर भी पिछले काफ़ी सालों से दिल्ली में इलेक्ट्रिक रिक्शा चलाकर अपने घरवालों को पैसा भेजते हैं.
भाई के रास्ते पर चलकर ही बबलू भी मेहनत करके कमाने के लिए कुछ समय पहले ही दिल्ली आए थे.
बबलू और उनके भाइयों ने तिनका-तिनका जोड़कर अपने लिए एक घर खड़ा किया था.
बबलू अब अपनी मेहनत की कमाई से इस घर को पुतवाकर अपने बड़े भाई की शादी करवाना चाहते थे.
बबलू को अभी ज़्यादा पैसे नहीं मिलते क्योंकि काम नया नया शुरू किया था.
लेकिन कुछ साल बाद अगर वो यही काम करते रहते तो उनकी मासिक आय 15-20 हज़ार रुपए तक पहुंच सकती थी.
इस अग्निकांड में बबलू समेत उनके ही घर और गांव के पांच-छह लोगों की मौत हुई है.
मोहम्मद अफ़साद की कहानी भी बबलू और उनके परिवार जैसी ही है.
मोहम्मद अफ़साद दिल्ली में बीते काफ़ी समय से काम कर रहे थे.
बिहार के सहरसा से आने वाले 28 साल के मोहम्मद अफ़साद इसी कारखाने में काम करते थे और अपने 20 साल की उम्र वाले भाई को भी गांव से काम सिखाने के लिए बुलाया था.
अफ़साद अपने घर में अकेले कमाने वाले शख़्स थे. उनके घर में उनकी पत्नी, दो बच्चे और वृद्ध माँ-बाप हैं.
अफ़साद की मौत की ख़बर सुनकर दौड़े चले आए उनके भाई मोहम्मद सद्दाम बताते हैं, "ये हमारे चाचा का लड़का था. मैं भी कारखाने में काम करता हूं. और ये भी करता था. गांव-घर छोड़कर दिल्ली आया था कि कुछ कमा सके. मेरा भाई बहुत मेहनती था. अब कौन है इसके परिवार में. सिर्फ़ एक लड़का बचा है और वो भी अभी सिर्फ़ 20 साल का है. बताइए अब कैसे क्या होगा."
ये वो नाम हैं जो शनिवार की शाम तक ज़िंदा थे. आँखों में अपने अपने संघर्ष, सपने और संकटों को लिए जी रहे थे.
ये बिहार में अपने गाँवों से हज़ार किलोमीटर का सफ़र तय करके दिल्ली के एक कारखानों में हर रोज़ 12 से 15 घंटों तक काम कर रहे थे.
ये जहां काम करते थे, वहीं जगह बनाकर सो जाते थे. जितना कमाते थे, उसमें से अधिकतम हिस्सा अपने गाँव भेज देते थे ताकि ये अपने माई-बाबा और बच्चों को दो वक़्त की रोटी दे सकें.
लेकिन रविवार सुबह दिल्ली की अनाज़ मंडी में लगी आग में इन चार युवाओं समेत 40 से ज़्यादा मजदूरों की मौत हो गई.
और ये नाम सरकारी फाइलों में क़ैद हो गए. मरने वालों में बच्चे भी शामिल हैं.
कई ऐसे परिवार हैं, जिनमें अब कमाने वाला कोई नहीं बचा है.
कई परिवार ऐसे हैं, जिनके गाँव घर से छह सात लड़कों की मौत हुई है.
लेकिन मोतिहारी, सहरसा, सीतामढ़ी से आने वाले लोग कौन थे और ये किन हालातों में दिल्ली आए थे.
'पैसे कमाकर, भाई की शादी करानी है'
ये कहानी 20 साल के मोहम्मद बबलू की है, जो बिहार के मुजफ़्फ़रपुर से काम करने के लिए दिल्ली आए थे.
बबलू के भाई मोहम्मद हैदर का अपने भाई के ग़म में रो-रोकर बुरा हाल है.
हैदर बताते हैं, "मेरा भाई मुझसे बहुत प्यार करता था. बहुत अच्छा था. काम पर आने से पहले हमसे बोला था कि 'भाई हम दोनों भाई मिलकर काम करेंगे और घर पर पुताई करवाएंगे. फिर शादी करवाएंगे.' ये कैसा रंग हुआ कि मेरी ज़िंदगी की रंग ही उजड़ गया."
बबलू उस परिवार से आते थे जिनके भाई मोहम्मद हैदर भी पिछले काफ़ी सालों से दिल्ली में इलेक्ट्रिक रिक्शा चलाकर अपने घरवालों को पैसा भेजते हैं.
भाई के रास्ते पर चलकर ही बबलू भी मेहनत करके कमाने के लिए कुछ समय पहले ही दिल्ली आए थे.
बबलू और उनके भाइयों ने तिनका-तिनका जोड़कर अपने लिए एक घर खड़ा किया था.
बबलू अब अपनी मेहनत की कमाई से इस घर को पुतवाकर अपने बड़े भाई की शादी करवाना चाहते थे.
बबलू को अभी ज़्यादा पैसे नहीं मिलते क्योंकि काम नया नया शुरू किया था.
लेकिन कुछ साल बाद अगर वो यही काम करते रहते तो उनकी मासिक आय 15-20 हज़ार रुपए तक पहुंच सकती थी.
इस अग्निकांड में बबलू समेत उनके ही घर और गांव के पांच-छह लोगों की मौत हुई है.
मोहम्मद अफ़साद की कहानी भी बबलू और उनके परिवार जैसी ही है.
मोहम्मद अफ़साद दिल्ली में बीते काफ़ी समय से काम कर रहे थे.
बिहार के सहरसा से आने वाले 28 साल के मोहम्मद अफ़साद इसी कारखाने में काम करते थे और अपने 20 साल की उम्र वाले भाई को भी गांव से काम सिखाने के लिए बुलाया था.
अफ़साद अपने घर में अकेले कमाने वाले शख़्स थे. उनके घर में उनकी पत्नी, दो बच्चे और वृद्ध माँ-बाप हैं.
अफ़साद की मौत की ख़बर सुनकर दौड़े चले आए उनके भाई मोहम्मद सद्दाम बताते हैं, "ये हमारे चाचा का लड़का था. मैं भी कारखाने में काम करता हूं. और ये भी करता था. गांव-घर छोड़कर दिल्ली आया था कि कुछ कमा सके. मेरा भाई बहुत मेहनती था. अब कौन है इसके परिवार में. सिर्फ़ एक लड़का बचा है और वो भी अभी सिर्फ़ 20 साल का है. बताइए अब कैसे क्या होगा."
Monday, December 2, 2019
क़ानूनी तरीके से लाखों डॉलर कैसे कमा रहे हैं भारतीय हैकर्स
2016 की गर्मियों में किसी दिन प्रणव हिवरेकर फ़ेसबुक के आधुनिकतम फीचर में मौजूद कमियों को तलाशने के मिशन पर निकले. प्रणव हिवरेकर फुल टाइम हैकिंग का काम करते हैं.
फ़ेसबुक ने क़रीब आठ घंटे पहले ही, अपने यूजरों को नया फीचर देने की घोषणा की थी जिसके मुताबिक यूजर्स वीडियो पोस्ट पर भी कमेंट कर सकते थे.
प्रणव ने कमियों को जानने के लिए सिस्टम की हैकिंग शुरू की, ख़ासकर वैसी कमी जिसका इस्तेमाल करके साइबर अपराधी कंपनी के नेटवर्क को नुकसान पहुंचा सकते थे और डेटा चुरा सकते थे.
इस दौरान प्रणव को वह कोड मिला जिसके जरिए वे फ़ेसबुक का कोई भी वीडियो डिलीट कर सकते थे.
पुणे के इथिकल हैकर प्रणव बताते हैं, "मैंने देखा कि उस कोड की मदद से कोई भी वीडियो डिलीट किया जा सकता था, अगर मैं चाहता था मार्क जुकरबर्ग का अपलोड किया वीडिया भी डिलीट कर सकता था."
उन्होंने इस कमी या बग के बारे में फ़ेसबकु को उसके 'बग बाउंटी' प्रोग्राम के तहत बताया. 15 दिनों के भीतर फ़ेसबुक ने उन्हें पांच अंकों वाली इनामी रकम से सम्मानित किया वो भी डॉलर में.
कुछ इथिकल हैकर काफ़ी पैसा कमा रहे हैं और यह इंडस्ट्री तेजी से बढ़ रही है.
इस तरह के बग हंटिंग का काम करने वाले ज्यादा लोग युवा होते हैं. इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक हैकरों में दो तिहाई की उम्र 18 से 29 साल के बीच है.
इन लोगों को बड़ी कंपनियां कोई भी खामी बताने पर बड़ी इनामी राशि देती है. वे किसी साइबर अपराधी से पहले वेब कोड की कमी का पता लगाते हैं.
जिन बग का पहले पता नहीं चल पाया हो उन्हें तलाशना बेहद मुश्किल काम होता है, लिहाजा इस काम के लिए उन्हें हज़ारों डॉलर की रकम मिलती है, यह एक तरह से इथिकल हैकरों के लिए बड़ी इनसेंटिव होती है.
उत्तर भारत के इथिकल हैकर शिवम वशिष्ठ साल में सवा लाख डॉलर की आमदनी कर लेते हैं. वे बताते हैं, "इस तरह की इनामी रकम ही मेरी आमदनी का एकमात्र स्रोत है. मैं दुनिया की बड़ी कपंनियों के लिए क़ानूनी तौर पर हैकिंग का काम करता हूं और इसके लिए पैसे मिलते हैं. यह एक तरह से फन भी है और चुनौतीपूर्ण काम भी."
इस क्षेत्र में कामयाबी हासिल करने के लिए किसी आधिकारिक डिग्री या अनुभव की ज़रूरत नहीं है. शिवम ने अन्य हैकरों की तरह से यह काम आनलाइन रिसोर्सेज और ब्लॉग के जरिए सीखा है.
शिवम बताते हैं, "हैकिंग सीखने के लिए मैंने कई रातें जागकर बिताई है ताकि सिस्टम पर अटैक कर सकूं. मैं ने दूसरे साल के बाद यूनिवर्सिटी की पढ़ाई छोड़ दी थी."
अब उन्होंने अमरीकी हैकर जेसे किन्सर की तरह कोड में कमी तलाशने की अपनी लत को चमकदार करियर में तब्दील कर लिया है.
जेसे किन्सर ईमेल के ज़रिए बताती हैं, "कॉलेज के दिनों में हैकिंग में मेरी दिलचस्पी शुरू हुई थी, जब मैं ने मोबाइल हैकिंग और डिजिटल हैकिंग पर काफ़ी सारा रिसर्च करना शुरू किया था."
जेसे किन्सर बताते हैं, "एक प्रोजेक्ट के तहत मैंने देखा कि एक ख़राब ऐप एंड्रायड ऐप स्टोर में बिना पता चले प्रवेश कर चुका था."
विशेषज्ञों का कहना है कि इनामी रकम मिलने से इथिकल हैकर मोटिवेटेड रहते हैं. डाटा सिक्यूरिटी फर्म इम्प्रेवा के चीफ टेक्नालॉजी ऑफ़िसर टेरी रे बताते हैं, "इन कार्यक्रमों के ज़रिए टेक सेवी पेशेवरों को एक क़ानूनी विकल्प मिलता है नहीं तो वे हैकिंग करके और डाटा चुराकर बेचने का काम करने लगेंगे."
साइबर सिक्यूरिटी फर्म हैकरवन के मुताबिक, 2018 में अमरीका और भारत के हैकरों ने सबसे ज़्यादा इनामी रकम जीतने का काम किया. इनमें से कुछ हैकर तो साल में 3.5 लाख डॉलर से भी ज़्यादा कमा रहे हैं.
हैकिंग की दुनिया में गीकब्वॉय के नाम से मशहूर संदीप सिंह बताते हैं कि इसमें काफ़ी मेहनत करनी होती है.
वे कहते हैं, "मुझे अपनी पहली वैध रिपोर्ट और इनामी रकम जीतने में छह महीने का समय लगा और इसके लिए मैंने 54 बार आवेदन किया था."
हैकर वन, बग क्राउड, सायनैक और अन्य कंपनियां अब बड़ी बड़ी कंपनियों और सरकार की ओर से ऐसी इनामी प्रोग्राम चला रही हैं.
ऐसी कंपनियां आम तौर पर इथिकल हैकरों के काम को आंकने, उनके काम की जांच करने और उपभोक्ताओं के बीच गोपनीयता बरतने का काम करते हैं.
दुनिया की ऐसी तीन बड़ी इनामी रकम वाले प्रोग्राम चलाने वाली कंपनियों में एक हैकरवन की सूची में पांच लाख 50 हज़ार हैकर संबंधित हैं. हैकरवन के हैकर ऑपरेशन प्रमुख बेन सादेगहिपोर बताते हैं कि उनकी कंपनी अब तक 70 मिलियन डॉलर की रकम इनाम के तौर पर बांट चुकी है.
बेन सादेगहिपोर कहते हैं, "टेक इंडस्ट्री में बग की पहचान पर इनामी रकम देने का चलन नया है, लेकिन अब इनाम की रकम बढ़ रही है क्योंकि संस्थाएं अपने सुरक्षा को बेहतर करना चाहती हैं."
फ़ेसबुक ने क़रीब आठ घंटे पहले ही, अपने यूजरों को नया फीचर देने की घोषणा की थी जिसके मुताबिक यूजर्स वीडियो पोस्ट पर भी कमेंट कर सकते थे.
प्रणव ने कमियों को जानने के लिए सिस्टम की हैकिंग शुरू की, ख़ासकर वैसी कमी जिसका इस्तेमाल करके साइबर अपराधी कंपनी के नेटवर्क को नुकसान पहुंचा सकते थे और डेटा चुरा सकते थे.
इस दौरान प्रणव को वह कोड मिला जिसके जरिए वे फ़ेसबुक का कोई भी वीडियो डिलीट कर सकते थे.
पुणे के इथिकल हैकर प्रणव बताते हैं, "मैंने देखा कि उस कोड की मदद से कोई भी वीडियो डिलीट किया जा सकता था, अगर मैं चाहता था मार्क जुकरबर्ग का अपलोड किया वीडिया भी डिलीट कर सकता था."
उन्होंने इस कमी या बग के बारे में फ़ेसबकु को उसके 'बग बाउंटी' प्रोग्राम के तहत बताया. 15 दिनों के भीतर फ़ेसबुक ने उन्हें पांच अंकों वाली इनामी रकम से सम्मानित किया वो भी डॉलर में.
कुछ इथिकल हैकर काफ़ी पैसा कमा रहे हैं और यह इंडस्ट्री तेजी से बढ़ रही है.
इस तरह के बग हंटिंग का काम करने वाले ज्यादा लोग युवा होते हैं. इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक हैकरों में दो तिहाई की उम्र 18 से 29 साल के बीच है.
इन लोगों को बड़ी कंपनियां कोई भी खामी बताने पर बड़ी इनामी राशि देती है. वे किसी साइबर अपराधी से पहले वेब कोड की कमी का पता लगाते हैं.
जिन बग का पहले पता नहीं चल पाया हो उन्हें तलाशना बेहद मुश्किल काम होता है, लिहाजा इस काम के लिए उन्हें हज़ारों डॉलर की रकम मिलती है, यह एक तरह से इथिकल हैकरों के लिए बड़ी इनसेंटिव होती है.
उत्तर भारत के इथिकल हैकर शिवम वशिष्ठ साल में सवा लाख डॉलर की आमदनी कर लेते हैं. वे बताते हैं, "इस तरह की इनामी रकम ही मेरी आमदनी का एकमात्र स्रोत है. मैं दुनिया की बड़ी कपंनियों के लिए क़ानूनी तौर पर हैकिंग का काम करता हूं और इसके लिए पैसे मिलते हैं. यह एक तरह से फन भी है और चुनौतीपूर्ण काम भी."
इस क्षेत्र में कामयाबी हासिल करने के लिए किसी आधिकारिक डिग्री या अनुभव की ज़रूरत नहीं है. शिवम ने अन्य हैकरों की तरह से यह काम आनलाइन रिसोर्सेज और ब्लॉग के जरिए सीखा है.
शिवम बताते हैं, "हैकिंग सीखने के लिए मैंने कई रातें जागकर बिताई है ताकि सिस्टम पर अटैक कर सकूं. मैं ने दूसरे साल के बाद यूनिवर्सिटी की पढ़ाई छोड़ दी थी."
अब उन्होंने अमरीकी हैकर जेसे किन्सर की तरह कोड में कमी तलाशने की अपनी लत को चमकदार करियर में तब्दील कर लिया है.
जेसे किन्सर ईमेल के ज़रिए बताती हैं, "कॉलेज के दिनों में हैकिंग में मेरी दिलचस्पी शुरू हुई थी, जब मैं ने मोबाइल हैकिंग और डिजिटल हैकिंग पर काफ़ी सारा रिसर्च करना शुरू किया था."
जेसे किन्सर बताते हैं, "एक प्रोजेक्ट के तहत मैंने देखा कि एक ख़राब ऐप एंड्रायड ऐप स्टोर में बिना पता चले प्रवेश कर चुका था."
विशेषज्ञों का कहना है कि इनामी रकम मिलने से इथिकल हैकर मोटिवेटेड रहते हैं. डाटा सिक्यूरिटी फर्म इम्प्रेवा के चीफ टेक्नालॉजी ऑफ़िसर टेरी रे बताते हैं, "इन कार्यक्रमों के ज़रिए टेक सेवी पेशेवरों को एक क़ानूनी विकल्प मिलता है नहीं तो वे हैकिंग करके और डाटा चुराकर बेचने का काम करने लगेंगे."
साइबर सिक्यूरिटी फर्म हैकरवन के मुताबिक, 2018 में अमरीका और भारत के हैकरों ने सबसे ज़्यादा इनामी रकम जीतने का काम किया. इनमें से कुछ हैकर तो साल में 3.5 लाख डॉलर से भी ज़्यादा कमा रहे हैं.
हैकिंग की दुनिया में गीकब्वॉय के नाम से मशहूर संदीप सिंह बताते हैं कि इसमें काफ़ी मेहनत करनी होती है.
वे कहते हैं, "मुझे अपनी पहली वैध रिपोर्ट और इनामी रकम जीतने में छह महीने का समय लगा और इसके लिए मैंने 54 बार आवेदन किया था."
हैकर वन, बग क्राउड, सायनैक और अन्य कंपनियां अब बड़ी बड़ी कंपनियों और सरकार की ओर से ऐसी इनामी प्रोग्राम चला रही हैं.
ऐसी कंपनियां आम तौर पर इथिकल हैकरों के काम को आंकने, उनके काम की जांच करने और उपभोक्ताओं के बीच गोपनीयता बरतने का काम करते हैं.
दुनिया की ऐसी तीन बड़ी इनामी रकम वाले प्रोग्राम चलाने वाली कंपनियों में एक हैकरवन की सूची में पांच लाख 50 हज़ार हैकर संबंधित हैं. हैकरवन के हैकर ऑपरेशन प्रमुख बेन सादेगहिपोर बताते हैं कि उनकी कंपनी अब तक 70 मिलियन डॉलर की रकम इनाम के तौर पर बांट चुकी है.
बेन सादेगहिपोर कहते हैं, "टेक इंडस्ट्री में बग की पहचान पर इनामी रकम देने का चलन नया है, लेकिन अब इनाम की रकम बढ़ रही है क्योंकि संस्थाएं अपने सुरक्षा को बेहतर करना चाहती हैं."
Thursday, November 21, 2019
मोदी सरकार को अपने ही डेटा पर भरोसा क्यों नहीं
इसी साल मई महीने में मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इस्तीफ़ा दे दिया था. अरविंद सुब्रमण्यम जाने-माने अर्थशास्त्री हैं. इस्तीफ़े के एक महीने बाद उन्होंने कहा कि भारत अपनी जीडीपी वृद्धि दर बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है.
उन्होंने कहा कि 2011-12 से 2016-17 के बीच भारत की जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 4.5 फ़ीसदी थी लेकिन इसे आधिकारिक रूप से सात फ़ीसदी बताया गया. अरविंद सुब्रमण्यम के इस बयान को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में ख़ूब तवज्जो मिली और कहा गया कि सरकार आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर रही है.
इससे पहले इसी साल 28 जनवरी को पीसी मोहनन ने नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन यानी एनएससी से कार्यकारी अध्यक्ष से इस्तीफ़ा दे दिया था. एनएससी केंद्र सरकार की संस्था है जो भारत के अहम आँकड़ों की गुणवत्ता की जाँच करती है.
पीसी मोहनन ने रोज़गार से जुड़े आँकड़ों के प्रकाशन में देरी का विरोध करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के साथ एनएससी की एक और सदस्य जे लक्ष्मी ने भी इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के इस्तीफ़े के तीन दिन बाद बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार में रोज़गार के आँकड़े लीक हो गए और इससे पता चला कि बेरोज़गारी की दर बढ़कर 6.1 फ़ीसदी हो गई है और यह पिछले 45 सालों में सबसे उच्चतम स्तर पर आ गई है.
जब यह सब कुछ हो रहा था तब मोदी सरकार का पहला कार्यकाल था. बेरोज़गारी का यह आँकड़ा चुनाव से पहले सरकार के लिए परेशान करने वाला था. हालांकि मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के आंकड़ों को ख़ारिज कर दिया और कहा कि डेटा संग्रह करने की प्रक्रिया में कई तरह के दोष हैं और यह असली तस्वीर नहीं है.
सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि मुद्रा योजना के तहत हज़ारों करोड़ रुपए के क़र्ज़ दिए गए हैं और लोग इस पैसे से अपना रोज़गार चला रहे हैं लेकिन डेटा संग्रह करते वक़्त इसकी उपेक्षा की गई.
बीजेपी की सरकार ने जनवरी 2015 में जीडीपी गणना का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 किया था. इसके साथ ही मनमोहन सरकार जिस आधार पर जीडीपी की गणना करती थी उसे भी मोदी सरकार ने बदल दिया था.
अरविंद सुब्रमण्यम का कहना था कि जीडीपी गणना की प्रक्रिया बदलने के कारण इसके आँकड़े ज़्यादा हैं जो वास्तविक तस्वीर नहीं है. सुब्रमण्यम ने कहा था कि बैंक क्रेडिट का ग्रोथ नकारात्मक है, निर्यात दर नकारात्मक है, बेरोज़गारी बढ़ी हुई है और लोग कम ख़र्च कर रहे है तो जीडीपी वृद्धि दर सात फ़ीसदी से ज़्यादा कैसे हो सकती है?
दो चीज़ें साफ़ हैं. एक तो ये कि सरकार जो आंकड़े जारी कर रही है उन पर विशेषज्ञ कई तरह के सवाल खड़े कर रहे हैं और सरकार जिन आँकड़ों को जारी नहीं होने दे रही है उसे लेकर विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह सरकार को पसंद नहीं आ रहा.
आँकड़ों से ही जुड़ा एक और विवाद पिछले हफ़्ते आया. मोदी सरकार ने नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के 2017-18 के उपभोक्ता ख़र्च सर्वे डेटा को जारी नहीं करने का फ़ैसला किया है. सरकार ने कहा है कि डेटा की 'गुणवत्ता' में कमी के कारण इसे जारी नहीं किया जाएगा.
इस डेटा के जारी नहीं होने के कारण पिछले दस सालों की ग़रीबी का डेटा पता नहीं चल पाएगा. इससे पहले यह सर्वे 2011-12 में हुआ था. इस डेटा के ज़रिए सरकार देश में ग़रीबी और विषमता का आकलन करती है.
यह डेटा भी इस साल जून में ही जारी होने वाला था लेकिन नहीं किया गया. लेकिन एक बार फिर से बिजनेस स्टैंडर्ड अख़बार ने डेटा लीक करने का दावा किया और बताया कि लोगों के ख़र्च करने की क्षमता में पिछले 40 सालों बाद कमी आई है. हालांकि सरकार ने इसे ख़ारिज कर दिया और कहा कि वो एनएसओ सर्वे का आधार वर्ष बदलने पर विचार कर रही है और यह सर्वे अब 2021-22 में होगा.
मोदी सरकार को आख़िर अपने ही संस्थानों के आंकड़ों पर भरोसा क्यों नहीं है? नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन के पूर्व चेयरमैन पीसी मोहनन कहते हैं, ''इस रिपोर्ट को जून महीने में ही आना था. नवंबर आधा ख़त्म हो चुका है और अब तक रिपोर्ट नहीं आई है. जब देरी हो रही थी तभी संदेह होने लगा था कि आख़िर सरकार जारी क्यों नहीं कर रही है. लीक रिपोर्ट जो बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी उससे स्पष्ट हो गया कि सरकार को रिपोर्ट पसंद नहीं आई. सरकार रिपोर्ट जारी नहीं करने का कारण गुणवत्ता में कमी बता रही है लेकिन इसे समझना मुश्किल है.''
उन्होंने कहा कि 2011-12 से 2016-17 के बीच भारत की जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 4.5 फ़ीसदी थी लेकिन इसे आधिकारिक रूप से सात फ़ीसदी बताया गया. अरविंद सुब्रमण्यम के इस बयान को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में ख़ूब तवज्जो मिली और कहा गया कि सरकार आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर रही है.
इससे पहले इसी साल 28 जनवरी को पीसी मोहनन ने नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन यानी एनएससी से कार्यकारी अध्यक्ष से इस्तीफ़ा दे दिया था. एनएससी केंद्र सरकार की संस्था है जो भारत के अहम आँकड़ों की गुणवत्ता की जाँच करती है.
पीसी मोहनन ने रोज़गार से जुड़े आँकड़ों के प्रकाशन में देरी का विरोध करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के साथ एनएससी की एक और सदस्य जे लक्ष्मी ने भी इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के इस्तीफ़े के तीन दिन बाद बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार में रोज़गार के आँकड़े लीक हो गए और इससे पता चला कि बेरोज़गारी की दर बढ़कर 6.1 फ़ीसदी हो गई है और यह पिछले 45 सालों में सबसे उच्चतम स्तर पर आ गई है.
जब यह सब कुछ हो रहा था तब मोदी सरकार का पहला कार्यकाल था. बेरोज़गारी का यह आँकड़ा चुनाव से पहले सरकार के लिए परेशान करने वाला था. हालांकि मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के आंकड़ों को ख़ारिज कर दिया और कहा कि डेटा संग्रह करने की प्रक्रिया में कई तरह के दोष हैं और यह असली तस्वीर नहीं है.
सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि मुद्रा योजना के तहत हज़ारों करोड़ रुपए के क़र्ज़ दिए गए हैं और लोग इस पैसे से अपना रोज़गार चला रहे हैं लेकिन डेटा संग्रह करते वक़्त इसकी उपेक्षा की गई.
बीजेपी की सरकार ने जनवरी 2015 में जीडीपी गणना का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 किया था. इसके साथ ही मनमोहन सरकार जिस आधार पर जीडीपी की गणना करती थी उसे भी मोदी सरकार ने बदल दिया था.
अरविंद सुब्रमण्यम का कहना था कि जीडीपी गणना की प्रक्रिया बदलने के कारण इसके आँकड़े ज़्यादा हैं जो वास्तविक तस्वीर नहीं है. सुब्रमण्यम ने कहा था कि बैंक क्रेडिट का ग्रोथ नकारात्मक है, निर्यात दर नकारात्मक है, बेरोज़गारी बढ़ी हुई है और लोग कम ख़र्च कर रहे है तो जीडीपी वृद्धि दर सात फ़ीसदी से ज़्यादा कैसे हो सकती है?
दो चीज़ें साफ़ हैं. एक तो ये कि सरकार जो आंकड़े जारी कर रही है उन पर विशेषज्ञ कई तरह के सवाल खड़े कर रहे हैं और सरकार जिन आँकड़ों को जारी नहीं होने दे रही है उसे लेकर विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह सरकार को पसंद नहीं आ रहा.
आँकड़ों से ही जुड़ा एक और विवाद पिछले हफ़्ते आया. मोदी सरकार ने नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के 2017-18 के उपभोक्ता ख़र्च सर्वे डेटा को जारी नहीं करने का फ़ैसला किया है. सरकार ने कहा है कि डेटा की 'गुणवत्ता' में कमी के कारण इसे जारी नहीं किया जाएगा.
इस डेटा के जारी नहीं होने के कारण पिछले दस सालों की ग़रीबी का डेटा पता नहीं चल पाएगा. इससे पहले यह सर्वे 2011-12 में हुआ था. इस डेटा के ज़रिए सरकार देश में ग़रीबी और विषमता का आकलन करती है.
यह डेटा भी इस साल जून में ही जारी होने वाला था लेकिन नहीं किया गया. लेकिन एक बार फिर से बिजनेस स्टैंडर्ड अख़बार ने डेटा लीक करने का दावा किया और बताया कि लोगों के ख़र्च करने की क्षमता में पिछले 40 सालों बाद कमी आई है. हालांकि सरकार ने इसे ख़ारिज कर दिया और कहा कि वो एनएसओ सर्वे का आधार वर्ष बदलने पर विचार कर रही है और यह सर्वे अब 2021-22 में होगा.
मोदी सरकार को आख़िर अपने ही संस्थानों के आंकड़ों पर भरोसा क्यों नहीं है? नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन के पूर्व चेयरमैन पीसी मोहनन कहते हैं, ''इस रिपोर्ट को जून महीने में ही आना था. नवंबर आधा ख़त्म हो चुका है और अब तक रिपोर्ट नहीं आई है. जब देरी हो रही थी तभी संदेह होने लगा था कि आख़िर सरकार जारी क्यों नहीं कर रही है. लीक रिपोर्ट जो बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी उससे स्पष्ट हो गया कि सरकार को रिपोर्ट पसंद नहीं आई. सरकार रिपोर्ट जारी नहीं करने का कारण गुणवत्ता में कमी बता रही है लेकिन इसे समझना मुश्किल है.''
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