Thursday, November 21, 2019

मोदी सरकार को अपने ही डेटा पर भरोसा क्यों नहीं

इसी साल मई महीने में मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इस्तीफ़ा दे दिया था. अरविंद सुब्रमण्यम जाने-माने अर्थशास्त्री हैं. इस्तीफ़े के एक महीने बाद उन्होंने कहा कि भारत अपनी जीडीपी वृद्धि दर बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है.

उन्होंने कहा कि 2011-12 से 2016-17 के बीच भारत की जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 4.5 फ़ीसदी थी लेकिन इसे आधिकारिक रूप से सात फ़ीसदी बताया गया. अरविंद सुब्रमण्यम के इस बयान को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में ख़ूब तवज्जो मिली और कहा गया कि सरकार आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर रही है.

इससे पहले इसी साल 28 जनवरी को पीसी मोहनन ने नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन यानी एनएससी से कार्यकारी अध्यक्ष से इस्तीफ़ा दे दिया था. एनएससी केंद्र सरकार की संस्था है जो भारत के अहम आँकड़ों की गुणवत्ता की जाँच करती है.

पीसी मोहनन ने रोज़गार से जुड़े आँकड़ों के प्रकाशन में देरी का विरोध करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के साथ एनएससी की एक और सदस्य जे लक्ष्मी ने भी इस्तीफ़ा दे दिया था. मोहनन के इस्तीफ़े के तीन दिन बाद बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार में रोज़गार के आँकड़े लीक हो गए और इससे पता चला कि बेरोज़गारी की दर बढ़कर 6.1 फ़ीसदी हो गई है और यह पिछले 45 सालों में सबसे उच्चतम स्तर पर आ गई है.

जब यह सब कुछ हो रहा था तब मोदी सरकार का पहला कार्यकाल था. बेरोज़गारी का यह आँकड़ा चुनाव से पहले सरकार के लिए परेशान करने वाला था. हालांकि मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के आंकड़ों को ख़ारिज कर दिया और कहा कि डेटा संग्रह करने की प्रक्रिया में कई तरह के दोष हैं और यह असली तस्वीर नहीं है.

सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि मुद्रा योजना के तहत हज़ारों करोड़ रुपए के क़र्ज़ दिए गए हैं और लोग इस पैसे से अपना रोज़गार चला रहे हैं लेकिन डेटा संग्रह करते वक़्त इसकी उपेक्षा की गई.

बीजेपी की सरकार ने जनवरी 2015 में जीडीपी गणना का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 किया था. इसके साथ ही मनमोहन सरकार जिस आधार पर जीडीपी की गणना करती थी उसे भी मोदी सरकार ने बदल दिया था.

अरविंद सुब्रमण्यम का कहना था कि जीडीपी गणना की प्रक्रिया बदलने के कारण इसके आँकड़े ज़्यादा हैं जो वास्तविक तस्वीर नहीं है. सुब्रमण्यम ने कहा था कि बैंक क्रेडिट का ग्रोथ नकारात्मक है, निर्यात दर नकारात्मक है, बेरोज़गारी बढ़ी हुई है और लोग कम ख़र्च कर रहे है तो जीडीपी वृद्धि दर सात फ़ीसदी से ज़्यादा कैसे हो सकती है?

दो चीज़ें साफ़ हैं. एक तो ये कि सरकार जो आंकड़े जारी कर रही है उन पर विशेषज्ञ कई तरह के सवाल खड़े कर रहे हैं और सरकार जिन आँकड़ों को जारी नहीं होने दे रही है उसे लेकर विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह सरकार को पसंद नहीं आ रहा.

आँकड़ों से ही जुड़ा एक और विवाद पिछले हफ़्ते आया. मोदी सरकार ने नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के 2017-18 के उपभोक्ता ख़र्च सर्वे डेटा को जारी नहीं करने का फ़ैसला किया है. सरकार ने कहा है कि डेटा की 'गुणवत्ता' में कमी के कारण इसे जारी नहीं किया जाएगा.

इस डेटा के जारी नहीं होने के कारण पिछले दस सालों की ग़रीबी का डेटा पता नहीं चल पाएगा. इससे पहले यह सर्वे 2011-12 में हुआ था. इस डेटा के ज़रिए सरकार देश में ग़रीबी और विषमता का आकलन करती है.

यह डेटा भी इस साल जून में ही जारी होने वाला था लेकिन नहीं किया गया. लेकिन एक बार फिर से बिजनेस स्टैंडर्ड अख़बार ने डेटा लीक करने का दावा किया और बताया कि लोगों के ख़र्च करने की क्षमता में पिछले 40 सालों बाद कमी आई है. हालांकि सरकार ने इसे ख़ारिज कर दिया और कहा कि वो एनएसओ सर्वे का आधार वर्ष बदलने पर विचार कर रही है और यह सर्वे अब 2021-22 में होगा.

मोदी सरकार को आख़िर अपने ही संस्थानों के आंकड़ों पर भरोसा क्यों नहीं है? नेशनल स्टैटिस्टिकल कमिशन के पूर्व चेयरमैन पीसी मोहनन कहते हैं, ''इस रिपोर्ट को जून महीने में ही आना था. नवंबर आधा ख़त्म हो चुका है और अब तक रिपोर्ट नहीं आई है. जब देरी हो रही थी तभी संदेह होने लगा था कि आख़िर सरकार जारी क्यों नहीं कर रही है. लीक रिपोर्ट जो बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी उससे स्पष्ट हो गया कि सरकार को रिपोर्ट पसंद नहीं आई. सरकार रिपोर्ट जारी नहीं करने का कारण गुणवत्ता में कमी बता रही है लेकिन इसे समझना मुश्किल है.''

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